देश जब नये साल के जशन में डूबा हुआ था तो उसी देश का एक हिस्सा 1 जनवरी को एक ऐसी घटना का 200वी बरसी मनाने जा रहा था। जिसने दलित
समाज के आत्मसम्मान को एक नई दिशा दी थी। सोमवार को महाराष्ट्र में 200 साल पहले पुणे में हुए भीम कोरेगांव युद्ध की बरसी मनाने पर संग्राम मच गया।जिस से वहां के आस पास के गाँवो में हिंसा में एक व्यक्ति की मौत हो गई ।जिस से तनाव पूरे महाराष्ट्र में फैल गया।महाराष्ट्र सरकार ने इस हिंसा का न्यायिक जांच का आदेश दिया।
केंद्रीय मन्त्री राजनाथ सिंह ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को फोन पर बात करके वँहा के हालात की जानकारी ली औऱ शान्ति बहाल करने को कहा। इस बीच दलित प्रदशर्नकारियों ने मुंबई में कई बसों को क्षतिग्रस्त किया और सड़क व रेल यातायात को बाधित किया।मंगलवार को भी कई जगह दलित संगठनों ने प्रदशर्न किया।आखिर क्यों मनाते है दलित जशन जानते है।
1 जनवरी 1818 को महाराष्ट्र में पूना के नज़दीक “भीम कोरेगांव में अंग्रेज़ो की फ़ौज के साथ मिलकर लड़े महारों ने 500 की सेना ने पेशवा बाजीराव द्वितीय की 28000 की फ़ौज को हरा दिया था। उसके बाद में 1851 में इस युद्ध मे मारे गए सैनिको की याद में वँहा एक “स्तम्भ”का निर्माण करवाया।जिसके ऊपर ज़्यादातर महार सैनिकों के नाम खुदे थे।
फिर 1 जनवरी 1927 में यंहा अपने साथियों के साथ आकर उन महार सैनिकों को याद किया था ।जिन्होंने भयंकर जातिवाद और प्रतिक्रियावाद पेशवाओ की सेना को पराजित कर दिया था।जातिगत मिथिको को तोड़ दिया था। उसके बाद से लेकर अब तक वँहा पर दलित समाज के लोग वँहा पर लाखों की संख्या से आते है।और अनेक कार्यक्रम करते है और जातिगत व्यवस्था को खत्म करने की शपथ लेते है।
लेकिन सोचने की बात ये है कि आखिर क्या वजह रही कि महारों ने अंग्रेज़ी सरकार का साथ पेशवाओ को हरा दिया।इस विजय को जानने के लिए हमें महारों की प्रति पेशवाओ की क्या स्थिति थी उस पर नज़र डालनी ज़रूरी है।
पेशवाओ के राज्यों में महारों को सर्वजीनिक स्थलों पर निकलने से पहले गले मे घड़ा और कमर के पीछे झाड़ू बांधनी पड़ती थी। जिससे उनके पैरों के निशान खुद ब खुद मिटते रहे ताकि उनके सार्वजनिक स्थलों ‘अपवित्र’ न हो। अपनी एक स्थिति की वजह से महारों के दिल और दिमाग़ में पेशवाओ के ब्राम्हणों व कथाकथित ऊंची जातियों के प्रति सदियों से जो नफरत बैठी थी,उसी नफरत को उन्हें ताक़त दी जिससे वे अपने से अधिक संख्या में पेशवाओ की सेना को वापस भागाने में कामयाब हुये।ओर मिथक को भी चूर-चूर कर दिया की एक जाति में लड़ने की क़ाबिलियत है।
आखिर ये सब जो हुआ देश के लिए कलंक की तरह साबित हुआ है।पूरे लोकतंत्र के लिये एक सवाल बन गया है कि आज भी देश मे दलित समाज को नीचा समाज जा रहा है ।इस घटना से जुड़ी सरकार और विपक्ष की और से अनेक टिप्पणीयां आई है मगर उन बयानों से देश की हालत सुधरे वाली नही है।पक्ष और विपक्ष अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने का काम कर रहा है।लेकिन ऐसी हिंसाओं से देश की स्थिति बिगड़ रही है।सवाल ये है कि क्या सरकार ऐसी घटनाएं न हो कोई क़ानून कब बनायेगी।
शगुफ्ता ऐजाज़
संक्षिप्त लेकिन बेहतरीन लेख