“ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या” ये लफ्ज़ उस शख्स के लिए है जिसके लिए दुनिया तो शायद बनी ही नही थी. जिसके नसीब में था तो बहुत कुछ मगर वो ये चाहता नही था. इस शख्स ने भारतीय सिनेमा को “प्यासा” जेसी अद्भुत फिल्म दी,मगर अपने लिए कुछ रख न पाया. इस शख्स ने एक फिल्म को तीन गुना मेहनत से बनाया मगर शायद अपने आप को सही से “डायरेक्ट” नही कर पाया. बात हो रही है हिन्दी सिनेमा के सबसे बेहतरीन डायरेक्टर,एक्टर और सिर्फ अपने मर्ज़ी के रायटर वसन्त कुमार शिवशंकर पादुकोणे,यानी “गुरुदत” साहब की जिन का आज ही के दिन जन्मदिन है. गुरुदत्त के जन्मदिन पर ख़ास रिपोर्ट.
ज़िंदगी और जुड़ाव – गुरु दत्त साहब (वास्तविक नाम: वसन्त कुमार शिवशंकर पादुकोणे) का जन्म 9 जुलाई, 1925 को बैंगलौर में हुआ और उनका निधन 10 अक्टूबर, 1964 बम्बई में हुआ. वो हिन्दी फिल्मों के प्रसिद्ध अभिनेता,निर्देशक एवं फ़िल्म निर्माता थे. उन्होंने 1950वे और 1960 के दशक में कई उत्कृष्ट फिल्में बनाईं जैसे “प्यासा”, “कागज़ के फूल”,”साहिब बीबी और ग़ुलाम” और “चौदहवीं का चाँद”.
अगर इनकी फिल्मो पर गौर करते हुए ध्यान दें तो प्यासा और काग़ज़ के फूल को टाइम पत्रिका के 100 सर्वश्रेष्ठ फिल्मों की सूचि में शामिल किया गया है तथा साइट एन्ड साउंड आलोचकों और निर्देशकों के सर्वेक्षण के द्वारा भी दत्त खुद भी सबसे बड़े फिल्म निर्देशकों की सूचि में शामिल हैं।. उन्हें कभी-कभी “भारत का ऑर्सन वेल्स” (Orson Welles) भी कहा जाता है. 2010 में, उनका नाम सीएनएन के “सर्व श्रेष्ठ 25 एशियाई अभिनेताओं” के सूचि में भी शामिल किया गया. गुरु दत्त 1950 के दशक के लोकप्रिय सिनेमा के प्रसंग में, काव्यात्मक और कलात्मक फिल्मों के व्यावसायिक चलन को विकसित करने के लिए प्रसिद्ध हैं. उनकी फिल्मों को जर्मनी, फ्रांस और जापान में अब भी प्रकाशित करने पर सराहा जाता है.
फ़िल्मी जीवन-कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में शुरुआती शिक्षा के बाद उन्होंने अल्मोड़ा में नृत्य कला केंद्र में एडमिशन लिया और उसके बाद कलकत्ता में टेलीफ़ोन ऑपरेटर का काम भी किया. बाद में वह पुणे (भूतपूर्व पूना) चले गए और प्रभात स्टूडियो से जुड़ गए, जहाँ उन्होंने पहले अभिनेता और फिर नृत्य-निर्देशक के रूप में काम किया. उनकी पहली फ़ीचर फ़िल्म ‘बाज़ी’ (1951) देवानंद की ‘नवकेतन फ़िल्म्स’ के बैनर तले बनी थी. इसके बाद उनकी दूसरी सफल फ़िल्म ‘जाल’ (1952) बनी, जिसमें वही सितारे (देवानंद और गीता बाली) शामिल थे. इसके बाद गुरुदत्त ने ‘बाज़’ (1953) फ़िल्म के निर्माण के लिए अपनी प्रोडक्शन कंपनी शुरू की. हालांकि उन्होंने अपने संक्षिप्त, किंतु प्रतिभा संपन्न पेशेवर जीवन में कई शैलियों में प्रयोग किया, लेकिन उनकी प्रतिभा का सर्वश्रेष्ठ रूप उत्कट भावुकतापूर्ण फ़िल्मों में प्रदर्शित हुआ.
अद्भुत शख्सियत– गुरु दत्त बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे,वो हर एक फिल्म को बारीकी से अलग अलग तरह से बनाया करते थे. गुरु दत्त के बारे में ये बात प्रसिद्ध है की वो एक एक शॉट के तीन तीन रिटेक लिया करते थे और कभी कभी तो जब तक सभी उस सीन से सहमत न हो जब तक उस सीन को फिल्माते रहते थे. उनकी इस तरह की लगन को देखकर ही गुरु दत्त जी के अद्भुत निर्देशक होने में कोई शक रह नही जाता है.
निधन -ज़्यादातर वक़्त गंभीर रहने वाले गुरु दत्त साहब का निधन एक पहेली बन कर रह गया. कोई इसे आत्महत्या कहता है तो कोई मौत. क्यूंकि,जिस वक़्त गुरु दत्त जी का निधन हुआ तब वो बिलकुल अकेले थे और उस रात उन्होंने बहुत शराब पी थी. उस वक़्त वो बहुत दुखी भी थे. उनके चले जाने से कई ऐसी चीज़ें थी जो शायद हमेशा के लिए ही रह गयी.
इसलिए आज भी गुरु दत्त के जन्मदिन से लेकर और उनकी हर एक बात तक गुरु दत्त साहब की याद सब की आँखों को भिगो देती है,और सभी का दिल कहता है “जाने वो केसे लोग थे”…
असद शेख