4 सितम्बर, 2017 का दिन यानि बीबीसी में ऑफिस का पहला दिन. रातभर नींद नहीं आई थी, बस सुबह का इंतज़ार था. लग रहा था मानो एक सपना पूरा होने जा रहा है. क्योंकि आज तक घर में तो छोड़ो पूरे परिवार में भी कोई इस तरह बड़े-बड़े ऑफिस में काम नहीं किया था. परिवार में कोई इतना पढ़ा लिखा ही नहीं है. एक चचेरा भाई पढ़ा लिखा है लेकिन वो भी सिर्फ बारहवीं तक. घर परिवार की बेटियों की तो बात ही छोड़ो. मेरी बहनें आठवीं तक जरूर पढ़ी हैं. इसलिए किसी ने भी इतने बड़े संस्थान में काम करना तो दूर करीब से देखा तक नहीं है.
मेरा इतना पढ़ना और इतनी अच्छी जगह काम की शुरूआत करने भर से पापा सबको ये बात सीना चौड़ा करते हुए बताते थे.
परिवार में पापा-मम्मी बहुत खुश थे. इतने खुश की उन्होंने गांव में कई रिश्तेदारों को फ़ोन कर बताया था कि बेटी अब बहुत बड़े मीडिया ऑफ़िस में काम करने जा रही है. बड़ी बहनों ने अपने घर (ससुराल) के आसपास मिठाई बंटवाई थी.
चूंकि पापा भगवान में अभी भी थोड़ा विश्वास रखते इसलिए पापा ने गांव में एक रसोई (भोज) के लिए भी कहा हुआ था, जो इस साल करने के लिए कह रहे थे. लेकिन अभी कुछ दिन पहले ही मैंने उन्हें इसलिए मना कर दिया क्योंकि मुझे पता चल गया था कि मेरी नौकरी अब ज्यादा दिन यहां नहीं है.
खैर, ऑफिस समय से पहुंच गई थी. कस्तुरबा गांधी मार्ग पर खड़ी ऊंची-सी बिल्डिंग को पहले नीचे से ऊपर तक देखा और तब एक सपना पूरा करने की ओर आगे बढ़ी.
जल्दी इतनी थी कि पांच मंज़िल सीढ़ियों से ही चढ़ गई. हांफते हुए जब पहुंची तो वहां मेरे साथ ज़ॉइन करने वाला कोई नहीं था. रिसेप्शन पर पता चला कि सभी लोग तो ऊपर वाले माले पर हैं और वही ऊपर तक छोड़कर भी आए.
डरी हुई सी पेंट्री में गई जहां सभी लोग बैठे थे. जब वहां बैठे सब लोगों को देखा तो सब बहुत ही अनुभवी लग रहे थे. वहां खुद को बहुत ही अदना सा महसूस कर रही थी. उनमें से कुछ को व्यक्तिगतरूप से जानती थी और कुछ को सिर्फ नाम और चेहरे से. पटर-पटर इंग्लिश बोलने वालों के बीच अपना इंन्ट्रो भी इंग्लिश में देना असहज महसूस करवा रहा था.
दिन की शुरूआत और हमारा स्वागत चॉकलेट से किया गया. ऑफ़िस प्रशासन से जुड़े लोग सब एक-एक कर मिलने आ रहे थे. पहले अपना इंट्रो देते और फिर हमारा पूछते.
सब इतना अच्छा महसूस करवा रहे थे कि लग रहा था कि ऑफ़िस हो तो ऐसा वरना हो ही ना. जो भी आ रहा था कहता कि यहां कोई मैम और सर नहीं है सबको नाम लेकर बुला सकते हैं क्योंकि सब एक समान हैं.
लेकिन मैं अपनी आदत से मजबूर थी. बड़े-बड़े लोगों का नाम लेने के बारे में कभी सोचा ही नहीं था. शायद इसमें मेरे अनुभव की कमी थी या परिवार की परवरिश ही ऐसी थी, पता नहीं.
खैर, इस बारे में न्यूज़रूम में जाकर साफ़ हो गया कि ये बात तो केवल ट्रेनिंग का एक पार्ट है जिसे लागू करने की जरूरत नहीं है. क्योंकि वहां पहले से मौजूद लोग सर और मैम का चलन जारी रखे हुए थे.
हमारे बॉस और हिंदी के एडिटर मुकेश शर्मा ने पूरा ऑफ़िस घुमाया और प्रत्येक व्यक्ति के काम के बारे में बताया कि कौन क्या काम करता है और कहां क्या काम होता है.
पूरा दिन दूसरों का और खुद का परिचय करने-कराने में ही बीत गया. ऑफ़िस के माहौल और काम का खूब बख़ान किया गया जो सुनने में कानों को एक शांति देते हैं और दिमाग को एक ठंडक. लेकिन ये कब तक बनी रहनी थी, ये पता नहीं था. दिन के अहम आठ घंटे बीत चुके थे, जो यहां का वर्किंग टाइम था और इस तरह दिन बहुत अच्छा-अच्छा-सा बीता.
ऑफ़िस के कुछ दिन ट्रेनिंग में ही बीते. जब तक ट्रेंनिंग थी तब तक तो सब कुछ कितना अच्छा था. ऑफ़िस के कई लोग आकर बताते भी थे कि ये तुम्हारा हनीमून पीरियड है, जिसे बस एंजॉय करो.
ऑफ़िशियल ट्रेनिंग में अभी कुछ दिन का समय था इसलिए ऑफ़िस में कई अधिकारी, संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हमसे मिलने आते रहते थे. इसी तरह एक बार ऑफ़िस के वरिष्ठ पत्रकार हमसे हमारे परिचय के लिए आए थे. पहले उन्होंने अपना परिचय दिया और फिर हमसे एक-एक कर हमारा परिचय लिया. जब हम सब अपना परिचय दे रहे थे, तब वे हमारे साथ जॉइन की गई और एक जाने-माने मीडिया संस्थान से आई एक नई सहयोगी के लिए कहते हैं कि अरे आप को कौन नहीं जानता. आपके लिए तो यहां कई फ़ोन आए थे. हम सब एक दूसरे की शक्ल देखने लगे, तब उन्हें एहसास हुआ कि उन्होंने लगता है कुछ गलत बोल दिया और वे बात बदलने लगे. शायद उन्होंने सबके सामने वो बोल दिया था जो सबको बताने वाली बात नहीं थी.
शाम को जब घर जाती तो परिवार वालों की आंखों में हजारों सवाल होते. कैसा ऑफ़िस है, कैसा लग रहा है, क्या काम है आदि आदि. उन्हें इन सबका जवाब देना मेरे लिए आसान था. लेकिन एक सवाल जिसका जवाब तो आसान था पर वो सवाल मुझे कई और सवाल सोचने पर मजबूर कर देता. वो सवाल था, ‘ऑफ़िस में तो AC ही लगा होगा ना, धूप में काम तो नहीं करना पड़ता? बिल्कुल मैम साहब की तरह कुर्सी पर बैठ कर काम होता है ना?’
कितनी मासूमियत थी इन सवालों में, जो मुझे आज भी याद है. लेकिन एक मजदूर परिवार के घर में ये सवाल कोई आम नहीं था, जहां काम करते समय उन्हें AC तो दूर खाना खाने के लिए छाया भी नसीब नहीं होती थी.
जब पापा को इन सवालों के जवाब हां में मिलते तो वो एक ठंडी आह भरते. मुझे याद है, जब हम छोटे थे तो वो हमें बताते थे कि कैसे उन्होंने कई बार हरे पत्ते और पता नहीं क्या-क्या खाकर अपना बचपन निकाला है. मुझे पढ़ाना ही उनके लिए एक जंग से कम नहीं था. लेकिन फिर भी उन्होंने कभी हम भाई-बहनों से पढ़ने की जिद्द नहीं की. उनका कहना था कि तुम लोगों को जहां तक पढ़ना है पढ़ो क्योंकि मैं सिर्फ़ तुम्हें पढ़ाने के लिए पैसा लगा सकता हूं. बाकि और मदद नहीं कर सकता. क्या पढ़ना है, कैसे पढ़ना है इसके बारे में नहीं बता सकते थे क्योंकि वो कभी स्कूल नहीं गए, जिसका मलाल उन्हें आज तक है.
खैर, उनके इस तरह के सवाल पूछने इसलिए भी वाज़िब थे क्योंकि उन्हें नहीं पता था कि एक पत्रकार का काम क्या होता है. उनके लिए टीवी पर आने वाला ही केवल पत्रकार है.
कुछ दिनों बाद ललित हॉटेल में हमारी ट्रेनिंग शुरू हुई. और इस तरह हमारी ट्रेनिंग लगभग पूरे महीने चली, जिसके ट्रेनर ब्रिटिश थे. इनका अपना परिचय देने का भी अलग तरीका था और हमसे लेने का भी. ये खेल खेल में परिचय लेते. ये जो हमें ट्रेनिंग में सीखाते व्यवहार में भी उसका पालन करते थे. पहले दिन ही इन्होंने भी बताया था कि आप सभी मुझे और मेरे सहयोगी को नाम से बुला सकते हैं. उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता था कौन क्या है, किसका क्या बैकग्राउंड है या किसको कितना आता है. वो हमारे लिए कोई मैम और सर नहीं थे. अगर कोई बोल भी देता, तो वो सुनना ही पसंद नहीं करते थे. जब तक उन्हें उनके नाम से ना बुलाया जाए वे जवाब नहीं देते थे.
वे दोस्त की तरह हमें सीखाते और समझाते थे. मुझे इंग्लिश अच्छे से नहीं आती थी और उन्हें हिंदी नहीं आती थी. फिर भी उनके सामने टूटी-फूटी इंग्लिश बोलने में डर नहीं लगता था क्योंकि वो आपको ये एहसास नहीं करवाते थे कि आप किसी से कम हो. उनके इस व्यवहार से आज भी एक अपनापन बना हुआ है, वे जब भी दिल्ली आते हैं तो मिलने के लिए बुलाते हैं.
To be continued…
नोट:- यह शब्द पत्रकार मीना कोटवाल के अपने हैं हिंदी गजेट की इन शब्दों से कोई जवाबदारी नहीं है